Wednesday, September 4, 2019

चर्चा में रहे लोगों से बातचीत पर आधारित साप्ताहिक कार्यक्रम

विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि इसका मतलब यह नहीं है कि दलितों पर अत्याचार खत्म हो जाएंगे. विशेषज्ञों के मुताबिक आने वाले दिनों में दलितों पर अत्याचार के मामलों की संख्या भी बढ़ेगी. मैकवान कहते हैं, "दलितों का एक बड़ा तबका अभी भी शिक्षा से वंचित है."
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि ऐसी घटनाओं का इस्तेमाल केवल राजनीतिक फायदे के लिए किया जाता है. जब तक यह बड़ा आंदोलन नहीं बनेगा तब तक इससे समुदाय को कोई फायदा नहीं होगा.
राजनीतिक विश्लेषक बद्रीनारायण ने बीबीसी को बताया कि ऐसी घटनाओं का कुछ सामाजिक असर भले होता हो लेकिन कोई राजनीतिक असर नहीं पैदा होता है.
उन्होंने बताया, "रानजीतिक पार्टियां जल्दी इन घटनाओं को भूल जाती हैं." ये घटनाएं सामाजिक जाति व्यवस्था को चुनौती देती हैं लेकिन राजनीतिक दल समाज में बड़े बदलाव के लिए बड़ा आंदोलन खड़ा करने में असमर्थ रहे हैं. बद्रीनारायण कहते हैं, "दलितों पर अत्याचार के मुद्दे पर जब तक बड़ा आंदोलन नहीं शुरू होता तब तक सामाजिक सुधार बेहद मुश्किल है."
हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि प्रतिरोध के छोटे-मोटे दलित आंदोलन, शिक्षित दलितों के निजी विकास भी बड़े आंदोलनों जितने ही महत्वपूर्ण हैं.
दलित कार्यकर्ता पॉल दिवाकर का मानना है कि बिहार जैसे राज्यों में दलितों पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ संघर्ष तो लंबे समय से हो रहे हैं लेकिन वह मीडिया में जगह नहीं बना पाता था.
पॉल दिवाकर कहते हैं, "अब तो शोषित समुदाय के लोग भी मीडिया में आ गए हैं, इसलिए ऐसे मामले मीडिया में जगह बना रहे हैं. यह भी दलितों में शिक्षा के चलते संभव हो पाया है."
दिवाकर के मुताबिक दलितों का एक बड़ा तबका अब यह मान रहा है कि उनकी ख़राब स्थिति की वजह उनकी नियति नहीं है, इसलिए हर जगह से पुराने रीति-रिवाजों को खारिज करने की घटनाएं बढ़ रही हैं.
इसके अलावा दलित समुदाय का पलायन गांवों से शहरों की ओर भी बढ़ रहा है. दिवाकर कहते हैं, "जब ये लोग अपने गांवों में लौटते हैं तो उनके पास कुछ नए विचार होते हैं, नई सोच होती है. इनसे उन्हें भेदभाव को बढ़ावा देने परंपराओं को खारिज करने की प्रेरणा मिलती है."
मैकवान कहते हैं, "आंबेडकर के समाजवाद और समानता का विचार कई दलित युवाओं के जीवन में अहम तत्व है."
मैकवान नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन के 2014 में प्रकाशित साक्षरता दर के अध्ययन का हवाला देते हुए कहते हैं गुजारात में दलितों पर अत्याचार के मामले भी ज्यादा होते हैं, जबकि राज्य में दलितों में शिक्षा की दर भी ज्यादा है. उन्होंने बताया, "शिक्षा ज्यादा होने से ही भेदभाव करने वाली परंपराओं को अपनाने में अनिच्छा और उसका ज्यादा विरोध देखने को मिलता है."
भीमराव आंबेडकर का एक मशहूर कथन है- सामाजिक अत्याचार की तुलना में राजनीतिक अत्याचार कुछ भी नहीं है और समाज को चुनौती देने वाला व्यक्ति सरकार को चुनौती देने वाले नेता से कहीं ज्यादा साहसिक आदमी होता है. ऐसे में कहा जा सकता है कि भेदभाव वाली परंपराओं को चुनौती देने वाली छोटी छोटी घटनाएं ही आने वाले दिनों बड़े बदलाव का आधार बनेंगी.
दलित युवाओं की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं का जिक्र करते हुए डिक्की के अध्यक्ष मिलिंद कांबले बताते हैं कि देश भर में आर्थिक विकास का फायदा दलितों को भी हुआ है. कांबले बताते हैं, "दलित युवाओं की आकांक्षाएं बढ़ी हैं, वे सम्मान के साथ जीना चाहते हैं और आर्थिक विकास में बराबर की हिस्सेदारी चाहते हैं."
कांबले के मुताबिक दलितों की कामयाबी से भी उच्च जाति के लोगों में अ
मार्टिन मैकवान ने हाल ही में दलितों और आदिवासियों पर अत्याचार के मामलों की भारतीय मीडिया में छपी रिपोर्टों पर एक पुस्तक संपादित की है. इनमें ढेरों मामलों को शामिल किया गया है लेकिन मैकवान खास तौर पर राजस्थान के 36 साल के बाबूराम चौहान का जिक्र करते हैं.
बाबूराम एक दलित आरटीआई एक्टिविस्ट हैं. उन्होंने आरटीआई के जरिए दलितों की उस जमीन पर फिर से दावा जताया था जिसे सवर्णों ने हथिया लिया था. मैकवान कहते हैं, "दलित समुदाय में जमीन को लेकर जागरूकता से उच्च जाति के लोग परेशान हुए और बाबू राम पर हमला किया गया."
मैकवान यह भी बताते हैं कि पुरानी पीढ़ी के दलित शिक्षा हासिल करने के बाद भी शोषित रहे थे लेकिन नई पीढ़ी के दलित कहीं ज्यादा मुखर, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और अंबेडकर के समाजवादी सिद्धांतों से प्रेरित हैं.
सुरक्षा का भाव बढ़ा है और इस वजह से भी दलितों पर अत्याचार के मामले बढ़े हैं.
मिलिंद कांबले यह भी बताते हैं कि इन सबके बावजूद कारोबारी दुनिया में दलितों की उपस्थिति बेहद कम है.

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